अभी जो देखकर गुज़रा हूँ रास्ते से
वो एक प्रतिछाया भर थी… वंचित जमाअ़त की.
एक दलित की बेटी
जो नहा रही थी
सड़क के किनारे गडे़ चापानल पर.
मुश्किल से गिरते पानी
और नहाने की शीघ्रता.
एक कुढ़न झेलती…
क्योंकि वह थी अर्द्धनग्न
चुभ रही थीं उसे आते-जाते
किशोरवय,अर्द्धवय लोगों की दृष्टियाँ.
बांस दो बांस की दूरी पे
उन दलितों के घर.
घर क्या…
आँगन और कोठरियाँ कुछ कुछ एक से
कहीं कहीं से फूस की धँसती छतें.
आँगन के एक कोने में ‘चुभदी’,
बच्चों के शौचकर्मार्थ.
और,
घुटने तक की मिट्टी की चहारदीवारी.
मतलब सबकुछ बेपर्दा…
कोठरी से लेकर आँगन तक
यौवन से लेकर जीवन तक.
पर्दे की अोट में है तो बस…
सरकार की ‘इंदिरा आवास योजना’.
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