कविता

वंचित जमाअ़त

अभी जो देखकर गुज़रा हूँ रास्ते से
वो एक प्रतिछाया भर थी… वंचित जमाअ़त की.

एक दलित की बेटी
जो नहा रही थी
सड़क के किनारे गडे़ चापानल पर.

मुश्किल से गिरते पानी
और नहाने की शीघ्रता.
एक कुढ़न झेलती…
क्योंकि वह थी अर्द्धनग्न
चुभ रही थीं उसे आते-जाते
किशोरवय,अर्द्धवय लोगों की दृष्टियाँ.

बांस दो बांस की दूरी पे
उन दलितों के घर.
घर क्या…
आँगन और कोठरियाँ कुछ कुछ एक से
कहीं कहीं से फूस की धँसती छतें.

आँगन के एक कोने में ‘चुभदी’,
बच्चों के शौचकर्मार्थ.
और,
घुटने तक की मिट्टी की चहारदीवारी.

मतलब सबकुछ बेपर्दा…

कोठरी से लेकर आँगन तक
यौवन से लेकर जीवन तक.

पर्दे की अोट में है तो बस…
सरकार की ‘इंदिरा आवास योजना’.

__su’neel

कविता

कुछ चाँद मेरे…

उसकी सासें गातीं हैं सरगम
अौर रात रक़्स करती है/
मैं चाँद की डफली बजाता हूँ,
मगर ये गीत जाने कौन गाता है!

*~*
हमने चाँद को चिकुटी काटी /
शरारत सूझी/
उसे प्यार आया, फिर सहलाया /
और,
दे गया चाँदनी रात भर के लिये.

* ~*
उसे चाँद दे दिया
और खुद चाँदनी ले ली.
ठग लिया यूँ आसमां  को आज हमने.
सुना है,
आसमां सितारों से शिकायत करता है.

*~*
रात की मिट्टी में,
तेरी यादों की एक डाली रोपी
जज्बात से सींचा उसे,
फिर,
एक फूल खिला चाँद सा उसमें,
और,
तर हो गया मैं, तेरे बदन की गंध से.

*~*
सितारों के झूमर और दूज के चाँद का छल्ला
बू-ए-यास्मीन का आँचल,
और बदन चाँदनी से लीपा
देखो!
रात की दुल्हन दरीचे का
पल्ला हिलाती है.

__su’neel

कविता

शिलाचित्र

 

मिट्टी के तत्वों से
गल चुके सैकड़ों शब्द
कि शिलालेख की अर्थवत्ता खो चुकी.
जब कि,
अक्षम शिलालेख के नीचे
हस्ताक्षर सा शिलाचित्र
वयक्त कर रहा था सबकुछ.

कई-कई पुरूषों के बीच
अपह्रीत नारी, उसकी अस्मिता,
संकुचित देह से जैसे फटकर
निकलते आत्मरक्षार्थ हाथ.

पुरुषत्व के आगे याचनावत् थी नारी.

मिट्टी के तत्वों ने
शब्दों की तरह गलाया नहीं उसे,

इसलिए कि वह शिलाचित्र था
सर्वत्र के धरातल पर
सर्वदा की विषैली दूर्वा.

___su’neel

कविता

रात पूछती नहीं …

रात के कुएं में

क्या मैं हूँ कूपमंडूक की भांति
और मुझे भान नहीं
उजालों के अस्तित्व का.

या कि हूँ एक भागा हुआ आदमी –
उजालों के भय से.

कुछ भी सोचो, तय यही है,
मुझसे गप्पें मारतीं रातें
पूछतीं नहीं- ‘तुम क्यों हो नंगे’ .

दिखातीं  नहीं मेरी दुरवस्था औरों को,
घर की बात समझतीं हैं.

कह रही थी वह-
एक भाई है मेरा,
मेरी प्रकृति के विपरीत,
सवाल करता है बहुत,
पटरी बैठती नहीं मेरी-उसकी.

__su’neel

कविता

रामलीला

 

शहर की चहारदीवारी से कान लगाओ तो
शहर के हालात का पता चलता है.

अपहरण के बाद अपह्रीत की गिड़गिड़ाहट…
बलात्कारी की ख़ामोशी
और नारी की दीर्घ चीख.

ख़ून के छींटे बेचता अख़बार वाला.

पेट्रोल और डीजल अब कारक नहीं प्रदूषण के
उसकी जगह ले चुकी बारूद की गंध /फांद चुकी शहर की चहारदीवारी.

रेंगने की आवाज़ पे मैं चौंका –
वह सुकून था-दीवारों में सुराख ढूँढता हुआ.

चहारदीवारी से चिपके कान की नसें क्या तनीं,
दीवार पे चढ़ के शहर को देखा…

गाँधी मैदान में आयोजित रामलीला की थी दृश्यावली…
राम और रावण… दोनो के हाँथ में मद्पात्र…
एक-दूसरे को ‘चियर्स’ करते.
विनोद के क्षण को जीवंत करती जानकी
और एक कोने में कई-कई हनुमान…
चकित… लज्जित… किंकर्तव्यविमूढ़..

__Su’neel